रूढ़ियों को तोड़कर सुशीला खोथ ताइवान में लहराएंगी भारत का परचम

रूढ़िवादी समाज और गरीबी को हराकर सुशीला खोथ भारतीय रग्बी टीम में पहुंचीं। जानें बाड़मेर की इस बेटी के संघर्ष की कहानी।

gmsansar
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बाड़मेर, राजस्थान। यह कहानी है जिद, जुनून और सपनों के सच होने की। यह कहानी है बाड़मेर के भूरटिया गाँव की सुशीला खोथ की, जिन्होंने सामाजिक परंपराओं और आर्थिक तंगी की जंजीरों को तोड़कर अपने लिए एक नया आसमान बनाया है। बकरियां चराने वाले हाथों में आज रग्बी की गेंद है और सुशीला खोथ 13 सितंबर, 2025 से ताइवान में होने वाले एशिया रग्बी कप में भारत का प्रतिनिधित्व करने को तैयार हैं।

भूरटिया गाँव में, जहाँ लड़कियों को घर के कामों तक ही सीमित रखा जाता है, सुशीला खोथ का खेल के प्रति लगाव एक विद्रोह जैसा था। उनके माता-पिता, गणेश कुमार खोथ और बाली देवी, साधारण किसान हैं। परिवार ने जब उन्हें बकरियां चराने भेजा, तो उन्होंने उसी को अपना प्रैक्टिस ग्राउंड बना लिया।

उनकी दादी किस्तूरी देवी बताती हैं, “हमारे पास फुटबॉल खरीदने के पैसे नहीं थे, तो उसने कपड़ों की एक गेंद बनाई और उसी से खेलने लगी। हम उसे लड़कों का खेल बताकर खूब मना करते थे, लेकिन वह अपनी धुन की पक्की थी। आज उसी जिद ने हमें गर्व करने का मौका दिया है।” यह उनकी अटूट इच्छाशक्ति का प्रमाण था, जो किसी भी बाधा के सामने झुकने को तैयार नहीं थी।

जब सुशीला खोथ का चयन राष्ट्रीय टीम के लिए हुआ, तो सबसे बड़ी चुनौती पैसे की थी। रग्बी किट और यात्रा के खर्च ने परिवार को चिंता में डाल दिया। लेकिन बेटी के वादे—”मैं जीतकर लौटूंगी”—ने उनके पिता का दिल जीत लिया। पिता गणेश कुमार बताते हैं, “हमने अपनी बकरियां बेचकर उसकी ट्रेनिंग और किट का इंतजाम किया।”

पड़ोसियों ने ताने मारे कि “तुम्हारी बेटी छोटे कपड़ों में दौड़ती है,” लेकिन गणेश ने दृढ़ता से जवाब दिया, “हमने सुशीला का हौसला देखा और उसे खेलने दिया।” यह उस परिवार का विश्वास था जिसने सामाजिक दबाव से ऊपर उठकर अपनी बेटी के सपनों को पंख दिए।

कोच कौशलाराम विराट के मार्गदर्शन में सुशीला खोथ ने अपने खेल को निखारा और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जगह बनाई। अब उनका सपना सिर्फ खेलना नहीं, बल्कि भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतना है। वह चाहती हैं कि उनके गाँव में एक राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बने, ताकि उनकी तरह और भी प्रतिभाएं देश का नाम रोशन कर सकें।

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